वो हर सुब्ह इक ख़ूबसूरत सा छोटा परिंदा उधर मेरे कमरे की खिड़की पे बैठा उदास आँखों से इस तरह देखता था कि जैसे उसे उड़ न सकने पे मेरे लगातार रहम आ रहा हो मगर वो कि मूरख परिंदा है और जानता ही नहीं है कि उड़ना मुझे तो अच्छा लगे है और न चाहूँ मैं उड़ना मैं कश्मीर के एक छोटे से घर में थी शादाँ प्यार की साफ़ सुथरी फ़ज़ा में घिरी उधर मेरी छोटी सी दुनिया के माहौल में थी पहाड़ों के बीच मेरी माँ की मोहब्बत जहाँ मेरा हर गिरता आँसू वो झट चूम कर हटा देती नज़रों से दूर