ज़मीं पे अड़तीस बार पत्तों का रंग बदला रुतों की मोहलत तो मुख़्तसर थी मगर तुम्हारी सदाओं में जागती थीं सदियाँ गिटार का एक सुर उदासी किसी परिंदे की चीख़ जैसे तुम्हारे गीतों का दूसरा सुर नशात-ए-ताज़ा कि जैसे चश्मे उबल रहे हों तुम्हारी नज़्में क़दीम राज़ों की सरसराहट रगों में जैसे लहू की हलचल लहू तुम्हारा लहू दरख़्तों के पास मिट्टी में जज़्ब गहरी जड़ों में गुम है मगर हवाएँ नगर नगर शाइ'रों के दामन में डालती हैं तुम्हारे गीतों के फूल ख़्वाबों की टहनियों की सफ़ेद कलियाँ वो सब्ज़ हैरत जो तुम ने ज़ैतून के दरख़्तों में घुलते देखी नज़र नज़र में चमक रही है तुम्हारा बरबत ये कह रहा है कि गीत बंदूक़ से बड़ा है