मैं ने जब भी पलट के देखा है धुँद कुछ आईने से छूटी है अक्स कुछ आईने में उभरे हैं मैं ने देखा है इक शिकस्ता पर ज़िंदगी से तमाम-तर आरी जैसे माज़ी हो! अहद-ए-रफ़्ता हो एक ना-सुफ़्ता गौहर-ए-शफ़्फ़ाफ़ जैसे इक आफ़्ताब-ए-ताज़ा हो रोज़-ए-आइंदा, रोज़-ए-फ़र्दा हो एक शाहीन-ए-मावरा से परे एक निखरी हुई फ़ज़ा-ए-बसीत हाल हो जैसे अहद-ए-हाज़िर हो! धुँद फिर आईने से लिपटी है अक्स धुँदला सा मैं ने देखा है पेच-दर-पेच जाल मकड़ी का! उजला उजला सा, वो रुपहला सा जिस के तारों में मौत पिन्हाँ है एक मक्खी है नीम-जाँ मजबूर जाने किस दौर का ये ख़ाका है! जाने किस दौर के तसव्वुर से दिल मिरा काँप काँप जाता है