रू-कश-ए-चर्ख़ यही गोशा-ए-जन्नत है यही चश्म-ए-अग़्यार में आईना-ए-हैरत है यही मेहरबानी पे है वो क़िबला-ए-हाजात बहुत उस ने फैलाए हैं क़ुदरत के 'अतिय्यात बहुत ज़र लुटाने को कली गुल की निकलती है यहाँ है ये मशहूर ज़मीं सोना उगलती है यहाँ ख़ुश फ़रिश्ते भी हैं ज़र्रों का तमाशा कर के फेंक देते हैं यहाँ चाँद को चूरा कर के ज़ाहिरी आँखों में पिन्हाँ हैं बला के जल्वे पत्थरों में नज़र आते हैं ख़ुदा के जल्वे साज़ का लुत्फ़ है हर साँस में सुनते हैं रबाब दिल के पैमानों में मिलती है हक़ीक़त की शराब न शराफ़त की कमी और न दौलत की कमी है सपूतों में मगर माँ की मोहब्बत की कमी बादल अदबार के हैं उन के सरों पर छाए मरना आए न उन्हें और न जीना आए तंग-दस्ती भी है फ़ाक़े भी हैं बेकारी भी और अमराज़ भी हैं अक़्ल की बीमारी भी गिरते जाते हैं सँभलने की कोई आस नहीं गो सफ़र दूर का दरपेश है कुछ पास नहीं एक हंगामे पे मौक़ूफ़ न पैकार करें अब ज़रूरत है कि हर काम में ईसार करें