आग़ोश-ए-वालिदा में पाला था हम को जिस ने इक पैकर-ए-अदब में ढाला था हम को जिस ने जिस ने है इब्तिदा से हर ज़िंदगी सँवारी वो मादरी ज़बाँ है उर्दू ज़बाँ हमारी बचपन में जिस ने मीठी लोरी सुनाई हम को जिस के तुफ़ैल झूले में नींद आई हम को रस घोलती है जिस की आवाज़ प्यारी प्यारी वो मादरी ज़बाँ है उर्दू ज़बाँ हमारी जिस की मदद से हम ने अपनी ज़बान खोली जिस में समा गई है सारे जहाँ की बोली जिस की हर इक सिफ़त है सौ ख़ूबियों पे भारी वो मादरी ज़बाँ है उर्दू ज़बाँ हमारी जिस से मिटा जहालत की रात का अंधेरा हिन्दोस्ताँ में चमका तहज़ीब का सवेरा है जिस की रौशनी का हर घर में फ़ैज़ जारी वो मादरी ज़बाँ है उर्दू ज़बाँ हमारी वो 'कृष्ण' हों कि 'बेदी' 'चकबस्त' हों कि 'तालिब' 'महरूम' हों कि 'हाली' 'इक़बाल' हों कि 'ग़ालिब' सदियों हर अहल-ए-मज़हब जिस का रहा पुजारी वो मादरी ज़बाँ है उर्दू ज़बाँ हमारी जिस ने ख़ुलूस-ए-दिल से ऐ 'कैफ़' सब को पाला जिस का हर एक घर में अब भी है बोल-बाला दुश्मन के भी दिलों पर है जिस का ख़ौफ़ तारी वो मादरी ज़बाँ है उर्दू ज़बाँ हमारी