इस्म-ए-आज़म बहुत अच्छा हुआ था माँ ने मिरी सिखला दिए थे इस्म सारे मुझ को बचपन में तमाम आयात-ए-क़ुर्आनी, वज़ीफ़े और मुनाजातें कि जिन के विर्द से सारी बलाएँ दूर रहती हैं हिसार उन का हर आफ़त और मुसीबत से बचाता है उन्ही के हिफ़्ज़ से होती रही मुश्किल-कुशाई और मसीहाई मगर जब वजूद उस का मुजस्सम अजनबी बन कर गुरेज़ाँ हो गया मुझ से अज़ाब जांकनी बन कर ख़याल आया कि शायद बस वही इक इस्म-ए-आज़म माँ मुझे सिखला नहीं पाई जिसे पढ़ने से उस की सर्द-मेहरी सर्द पड़ जाए जो उस के दिल का ज़ंगी क़ुफ़्ल खोले और वो मुझ को फ़क़त इक बार इज़्न-ए-बारयाबी दे अज़ब-ए-नारसाई ख़त्म कर दे और नवेद-ए-शादमानी दे