माह-ए-तमाम By Nazm << हुस्न-ओ-इश्क़ ता'बीर >> न जाने क्यूँ मुझे अक्सर गुमान होता है मह-ए-तमाम फ़क़त देखता नहीं है हमें वो जब्र-ओ-क़ैद-ए-मुसलसल पे इक मशक़्क़त की हज़ारों साल से इस बे-कराँ मसाफ़त की बिसात-ए-वक़्त की इक दास्ताँ सुनाता है समझ सकें तो बहुत कुछ हमें बताता है Share on: