तू फ़क़त जिस्म के ज़ख़्मों पे तड़प जाता है मैं हर इक क़ल्ब में सौ ज़ख़्म-ए-निहाँ पाता हूँ तू फ़क़त रंग का दीवाना है बू का शैदा मैं रग-ए-गुल में भी बुलबुल का लहू पाता हूँ तू फ़क़त दिल की तड़प रखता है सीने में निहाँ मैं तड़पता भी हूँ और तुझ को भी तड़पाता हूँ तू फ़क़त चलता है मंज़िल तुझे मालूम नहीं मैं तुझे राह-ए-अमल बैठ के दिखलाता हूँ तुझ को इंसान की बातें भी समझना है मुहाल मैं हर इक शय में तकल्लुम की अदा पाता हूँ मस्जिद-ओ-मिम्बर-ओ-मेहराब का पाबंद है तू मैं हर इक ज़र्रे में तनवीर-ए-ख़ुदा पाता हूँ