सुख़नवरो मेरे हम-असरो मेरी उम्र के शाइरो कोई तो ऐसी ग़ज़ल कहो कोई तो ऐसी नज़्म लिखो जिसे सुन कर तुम्हारे शाइ'र होने का सुबूत मिले तुम्हें ज़ी-फ़हम होने का ख़िताब मिले कभी तो ख़ालिक़ थे आज मख़्लूक़ हैं हम कभी तो हाकिम थे आज महकूम हैं हम कभी तो क़ातिल थे आज मस्लूब हैं हम 'ग़ालिब'-ओ-'मीर' ने इश्क़-ए-बुताँ पर अपनी नज़र रक्खी इक़बाल ने क़दमों के तले क़ातिल की ज़बाँ रक्खी तरक़्क़ी पसंदों ने मज़दूर के हिसार बुलंद किए ख़ुद तो रहे बुलंद-बाँग महलों में झोंपड़ियों के फ़साने तहरीर किए जदीदियत का तक़ाज़ा है दर्द-ओ-ग़म ज़ात तन्हाई बेबसी अलमनाकी उकताए हुए लोग न मोहब्बत न सुकून न दोस्ती न दुश्मनी न कहीं क़रार हर सू ज़िंदगी से फ़रार यही मज़ामीन-ए-नौ हैं मेरे अहद के क़लम-कारो तुम इन पे भी अपनी नज़र रक्खो लिखो हिकायात-ए-ख़ूँ-चकाँ वर्ना ख़ुद को शाइ'र न कहो अपने हाथों से क़लम रख दो