राख राख बदन ले कर धुआँ धुआँ शगुन ले कर रात की अँधेरी गलियों में इंतिज़ार सुलगाता हूँ मैं उस के और अपने वास्ते बार बार दोहराता हूँ मिलाता हूँ बार बार नंबर मिला कर काट डालता हूँ मैं उस की पिन्हाइयों में मुख़िल अब तो हो नहीं सकता और अपनी तन्हाइयों की बाबत उसे कुछ कह नही सकता क़तरा क़तरा टपकती रहती है रात की छत और बदन का लहू जलता है उँगलियों में सिगरेट सुलगता रहता है और वक़्त की दहलीज़ पर दफ़्न शुदा मैं अपने मरक़द पर चादर चढ़ाता रहता हूँ ख़ुद को हक़ीक़त में बस जलाता रहता हूँ