अजीब आँधियाँ चलीं हवाएँ तेज़-तर हुईं दुआएँ बे-असर हुईं हसीन जाँ-गुदाज़ फूल ओढ़ कर वो सारी धूल शाख़ से चिमट गए ख़ौफ़ से लिपट गए मगर वो शाख़ झुक गई ज़मीं पे आ के रुक गई फूल शाख़ से झड़े ज़मीं पे ऐसे गिर पड़े कि बर्ग बर्ग रंग रंग आँधियों में खो गए मिले कुछ ऐसे ख़ाक में कि ख़ुद ही ख़ाक हो गए मगर ये नन्ही घास जो पली बढ़ी है धूल में ज़मीन से लिपट के मुस्कुरा रही है धूल में वो हँस के जैसे कह रही हो बीबियो यही है ज़िंदगी का गुर समझ सको तो सोचियो कोई कुचल भी दे तो सर उठा के फिर जियो यहाँ खड़ी मैं सोचती थी सोचती हूँ बस यही मैं फूल जैसी क्यों हुई मैं घास जैसी क्यों नहीं