मैं तुम्हारे लिए ठहरूँगा कि शायद आओ और जब दोनों पहर मिलते हों हम भी आपस में मिलें जैसे इक रोज़ मिला करते थे दिन के हंगामे बुझे जाते हैं सर्द होने लगी ढलती हुई शाम कश्तियाँ आ के किनारे से लगीं झील लेटी हुई महव-ए-आराम पेड़ दिन भर की थकन से बोझल क़ुर्ब सरमा की हवा सुस्त-ख़िराम दिल मिरा बार-हा आया है यहाँ चल के उस रस्ते से जो ऊन के गोले की तरह मेरे क़दमों में खुला जाता था फिर मुख़िल होते हुए पत्तों की सरगोशी में एक आवाज़ ने रह रह के बुलाया था मुझे वक़्त का हाथ टहोके से दिए जाता है यूँ ही चलते रहो पीछे की तरफ़ मत देखो रात आ जाएगी सो जाओगे और जो गूँज उठा करती है दूर वीरानों में खो जाएगी