मज़दूर

गर्द चेहरे पर पसीने में जबीं डूबी हुई
आँसुओं में कुहनियों तक आस्तीं डूबी हुई

पीठ पर नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त इक बार-ए-गराँ
ज़ोफ़ से लर्ज़ी हुई सारे बदन की झुर्रियाँ

हड्डियों में तेज़ चलने से चटख़ने की सदा
दर्द में डूबी हुई मजरूह टख़ने की सदा

पाँव मिट्टी की तहों में मेल से चिकटे हुए
एक बदबू-दार मैला चीथड़ा बाँधे हुए

जा रहा है जानवर की तरह घबराता हुआ
हाँफता गिरता लरज़ता ठोकरें खाता हुआ

मुज़्महिल वामांदगी से और फ़ाक़ों से निढाल
चार पैसे की तवक़्क़ो सारे कुँबे का ख़याल

अपने हम-जिंसों की बे-मेहरी से मायूस-ओ-मलूल
सफ़्हा-ए-हस्ती पर इक सत्र-ए-ग़लत हर्फ़-ए-फ़ुज़ूल

अपनी ख़िल्क़त को गुनाहों की सज़ा समझे हुए
आदमी होने को ला'नत और बला समझे हुए

ज़िंदगी को नागवार इक सानेहा जाने हुए
बज़्म-ए-किबर-ओ-नाज़ में फ़र्ज़ अपना पहचाने हुए

रास्ते में राहगीरों की नज़र से बे-नियाज़
शोरिश-ए-मातम से नग़्मों के असर से बे-नियाज़

उस के दिल तक ज़िंदगी की रौशनी जाती नहीं
भूल कर भी उस के होंटों पर हँसी आती नहीं

एक लम्हा भी नहीं फ़िक्र-ए-मईशत से नजात
सुब्ह हो या शाम है तारीक उस की काएनात

देख ऐ क़ारून-ए-आज़म देख ऐ सरमाया-दार
ना-मुरादी का मुरक़्क़ा' बे-कसी का शाहकार

गो है तेरी ही तरह इंसाँ मगर मक़हूर है
देख ऐ दौलत के अंधे साँप ये मज़दूर है


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