उसे क्या फ़र्क़ पड़ता है दिसम्बर बीत जाने से यकुम तारीख़ आने से किसी भी साल-ए-नौ के ख़ैर-मक़्दम पर ख़ुशी के शादयाने से सुरूर-ओ-कैफ़-ओ-मस्ती में मोहब्बत के तराने से क्लब और होटलों में वहशियाना रक़्स पर सौदाइयों के थरथराने से उसे क्या फ़र्क़ पड़ता है उसे तो हर गुज़रता साल इक जैसा ही लगता है वो इक मज़दूर हे जिस की मुसलसल भूक और इफ़्लास से अर्से से लम्बी जंग जारी है कि जिस के सामने हर सुब्ह पै-दर-पै मशक़्क़त के तक़ाज़े हैं कड़ी मेहनत रियाज़त जेहद-ए-पैहम उस का मस्लक है उसे क्या फ़र्क़ पड़ता है कैलन्डर पर नए हिंदसों की इक तारीख़ आने से दिसम्बर बीत जाने से नया इक साल आने से