बहुत साल पहले मैं इक भीगती रात में आख़िरी शो से लौटा तो दहलीज़ पर मेरी माँ आहटों से गुलू-गीर आवाज़ में पूछती थी कहीं मेरे बच्चे को देखा है भाई मुझे याद है उस के चेहरे पे ग़ुस्सा नहीं था न होंटों पे हर्फ़-ए-मलामत न शिकवा वो चुप-चाप मुझ से लिपट कर बहुत देर तक रोई थी बलाओं के सागर में डूबी हुई रात है बाद-ओ-बाराँ के तूफ़ान से देव-क़ामत दरख़्तों ने अपनी जड़ें छोड़ दी हैं हवा जैसे बिजली के तारों से उलझी हुई मौत की रागनी गा रही है बहुत दूर से आ रहा हूँ बहुत देर तक भीगने से बदन काँपता है मिरे घर की दहलीज़ ख़ामोश है और वो आँखें जो मेरे लिए जागती थीं यहाँ से बहुत दूर पेड़ों के साए तले सो रही हैं