मिरी इक उम्र का अंदोख़्ता जिस में न कलियाँ हैं न मोती हैं क़लम से जिस क़दर चिंगारियाँ बरसीं उन्हें तुम राख से तश्बीह दे दो वो आँसू जो सियाही बन के काग़ज़ पर गिरे हैं मैं तुम्हारी नज़्र करता हूँ मिरी मंज़ूम तक़्सीरें जो मेरे जान-लेवा रत-जगों की ख़ुद ही शाहिद हैं तुम्हारे सामने हैं सब मिरे ख़ून-ए-जिगर का कितना कितना किस क़बीले से तअ'ल्लुक़ है ये तुम जानो ये रंगा-रंग तोहफ़े जो सरों की शक्ल में तुम ने सजाए हैं उन्हें मैं शुक्रिये के साथ वापस कर रहा हूँ बस मेरी गर्दन पे मेरा सर ही रहने दो