खिड़की पर महताब टिका था रात सुनहरी थी और दीवार पे साअ'त गिनती सोई सोई घड़ी की सूई चलते चलते सम्त गँवा कर ग़लताँ पेचाँ थी मैं भी ख़ुद से आँख चुरा कर अपने हाल से हाथ छुड़ा कर बरसों को फ़रसंग बना कर जाने कितनी दूर चला था जाने किस को ढूँड रहा था धुँदले धुँदले चेहरे कैसे रंग रंगीले थे पीले पीले फूल थे आँचल नीले नीले थे क्या चमकीली आँखें कैसे ख़्वाब सजीले थे लेकिन आँखें नम थीं मंज़र सीले सीले थे इक चेहरा था रौशन जैसे चाँद घटाओं में इक मुस्कान थी जैसे बिखरें रंग फ़ज़ाओं में मंज़र मंज़र तकता जाता चलता जाता मैं इस मंज़र से उस मंज़र तक बढ़ता जाता मैं इक तस्वीर को रुक कर देखा रुक नहीं पाया मैं इस खिड़की से उस आँगन तक झुक नहीं पाया मैं जैसे इस शब चलते रहना क़िस्मत ठहरी थी मेरे तआ'क़ुब में यादों की पछल-पैरी थी