अर्श की आड़ में इंसान बहुत खेल चुका ख़ून-ए-इंसान से हैवान बहुत खेल चुका मोर-ए-बे-जाँ से सुलैमान बहुत खेल चुका वक़्त है आओ दो-आलम को दिगर-गूँ कर दें क़ल्ब-ए-गीती मैं तबाही के शरारे भर दें ज़ुल्मत-ए-कुफ़्र को ईमान नहीं कहते हैं सग-ए-ख़ूँ-ख़ार को इंसान नहीं कहते हैं दुश्मन-ए-जाँ को निगहबान नहीं कहते हैं जाग उठने को है अब ख़ूँ का तलातुम देखो मलक-उल-मौत के चेहरे का तबस्सुम देखो जान लो क़हर का सैलाब किसे कहते हैं ना-गहाँ मौत का गिर्दाब किसे कहते हैं क़ब्र के पहलुओं की दाब किसे कहते हैं दौर-ए-ना-शाद को अब शाद किया जाएगा रूह-ए-इंसाँ को आज़ाद किया जाएगा नाला-ए-बे-असर अल्लाह के बंदों के लिए सिला-ए-दार-ओ-रसन हक़ के रसूलों के लिए क़स्र-ए-शद्दाद के दर बंद हैं भूखों के लिए फूँक दो क़स्र को गर कुन का तमाशा है यही ज़िंदगी छीन लो दुनिया से जो दुनिया है यही ज़लज़लों आओ दहकते हुए लाओ आओ बिजलियो आओ गरज-दार घटाओ आओ आँधियो आओ जहन्नम की हवाओ आओ आओ ये कुर्रा-ए-नापाक भसम कर डालें कासा-ए-दहर को मामूर-ए-करम कर डालें