हर तरफ़ ख़ामोश गलियाँ ज़र्द-रू गूँगे मकीं सूने सूने बाम-ओ-दर और उजड़े उजड़े शह-नशीं मुमटियों पर एक गहरी ख़ामुशी साया-फ़गन रेंग कर चलती हवा की भी सदा आती नहीं इस सुकूत-ए-बेकराँ में इक तिलिस्मी नाज़नीं सुर्ख़ गहरे सुर्ख़ लब और चाँद सी पीली जबीं आँख के मुबहम इशारे से बुलाती है मुझे एक पुर-असरार इशरत का ख़ज़ाना है वो चश्म-ए-दिल-नशीं