मैं ने चाहा था कोई उजाले सा हाथ मेरी उँगली पकड़ कर मुझे आगे बढ़ना सिखाए मदरसों दफ़्तरों शाह-राहों मकानों दूकानों तलक ले चले लेकिन ऐसा हुआ जिस जगह आँखें खोली थी मैं ने वहाँ हाथ सारे रोटी बनाने पे मामूर थे ख़ौफ़ आता था घर से निकलते हुए डगमगाते क़दम गुंग अल्फ़ाज़ बेबस निगाहें लिए आगे बढ़ती थी मैं चूँकि रुकना कोई हल नहीं था सो मैं अपनी गली से निकल कर जहाँ भी गई अजनबी मेरी सहमी हुई ज़ात पे डरते डरते अदा होती हर बात पे फ़िक़रे कसते रहे और हँसते रहे तब से अब तक नहीं याद कितने ही दरिया बहे कब गुलाबी बदन साँवला हो गया उजली बे-दाग़ आँखों में कब दर्द के ज़र्द मौसम उतर आए कब आइना धूल से भर गया लेकिन अब दफ़्तरों शाह-राहों मकानों दूकानों में जाते हुए ख़ौफ़ आता नहीं आसमानों को छूती इमारात से अजनबी सर-ज़मीनों से ऊँचे क़दों तेज़-रफ़्तार दरियाओं से ख़ौफ़ आता नहीं अब मैं चलती हूँ तो मेरे हमराह चलती हैं नज़्में मिरी माँ से नज़्में भाई से नज़्में वक़्त तू ने जो मेरा गुलाबी बदन साँवला कर उजालों सी नज़्में मुझे दी हैं तेरा बहुत शुक्रिया