इंसान के पर्दे में ख़ुदा देख रहा हूँ मैं ज़र्फ़-ए-नज़र से भी सिवा देख रहा हूँ अहबाब में कम रंग-ए-वफ़ा देख रहा हूँ ये वाक़िआ' सुनना तो कुजा देख रहा हूँ पहले तो न थी फ़ुर्सत-ए-नज़्ज़ारा न देखा हाँ अब तो ज़रा पर्दा उठा देख रहा हूँ जब तू नहीं मौजूद तो क्या खेल है दुनिया दिन-रात मैं ये ख़्वाब सा क्या देख रहा हूँ क्या जानिए क्या होगी हक़ीक़त में तजल्ली ये अक्स अगर जल्वा-नुमा देख रहा हूँ फिर होने को है दिल पे ग़म-ए-ताज़ा की यूरिश फिर डूबी हुई नब्ज़-ए-फ़ज़ा देख रहा हूँ नक़्काश-ए-अज़ल मैं तिरी जिद्दत के तसद्दुक़ हर नक़्श से हर नक़्श जुदा देख रहा हूँ नज़रें हैं मिरी मरकज़-ए-अनवार पे क़ाएम तख़्लीक़-ए-दो-आलम की बिना देख रहा हूँ इक तेरे न होने से हैं बे-रंग मनाज़िर हर साज़ को महरूम-ए-सदा देख रहा हूँ कौनैन को फ़ितरत ने सँवारा तो है लेकिन इस आइने में अक्स-ए-फ़ना देख रहा हूँ मेरे लिए हर बर्क़ है तम्हीद-ए-नज़ारा मैं मौत के दामन में बक़ा देख रहा हूँ हैं बे-ख़ुदी-ए-शौक़ में बे-पर्दा दो-आलम हर चीज़ को मैं अपने सिवा देख रहा हूँ शाइ'र की नज़र से उन्हें देखे कोई 'नख़शब' मैं कैसे बताऊँ कि मैं क्या देख रहा हूँ