तुम को आख़िर मेरे उन के दरमियाँ आने से क्या मोहसिन-ए-मन वो समझ जाएँगे समझाने से क्या हुस्न में ख़ुद-ए'तिमादी इश्क़ में बे-रह-रवी वो असर में ले मिरे नाराज़ हो जाने से क्या आप अपने रंग में हैं मैं हूँ अपने रंग में आप को ऐ बंदा-पर्वर मेरे अफ़्साने से क्या दिल को बहलाने की कोशिश और उन से दूर दूर दिल बहल भी जाएगा इस तरह बहलाने से क्या इश्तिआ'ल-आमेज़ बातों से अगर ज़िद पड़ गई ऐसे समझाने से हासिल ऐसे समझाने से क्या मुझ को तो ये बे-नियाज़ी बे-रुख़ी सब कुछ क़ुबूल आप को राहत मिलेगी मेरे तड़पाने से क्या उन का मिलना भी ग़लत तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ भी मुहाल ये हयात-ए-कश्मकश भी कम है मर जाने से क्या पहले ही बचना था 'नख़शब' उस बुत-ए-बे-मेहर से अब भला मर्द-ए-ख़ुदा होता है पछताने से क्या