दिल में कब से रिम-झिम करती कैसी बरखा बरस रही है इस बरखा के अमृत रस से भीग चुकी मैं भीग चुकी मैं लगती छुपती धूप और बादल ये आकाश के नन्हे बालक खेल रहे हैं हँसते हँसते किलकारी भरते सब्ज़े को शोख़ हवाएँ छेड़ रही हैं मैं भी अपने पँख झटक कर पर ताैलूँ और भरूँ उड़ानें अपने बदन में ख़ुद खो जाऊँ ये तन का आकाश ये धरती धीरे धीरे फैल रही है और मेरे हाथों के पखेरू ये चंचल बेचैन परिंदे एक अनोखे राज़ से बे-कल धरती में कुछ ढूँड रहे हैं ढूँड रहे हैं ऐसे पल को जिस की खोज में दिल रहता है जिस पल धरती मिले गगन से वो पल मेरे तन के बाहर कहीं नहीं है कहीं नहीं है ये पंछी ये नर्म पखेरू जन्मों से धरती के संगी इस काया के ताल किनारे धीरे धीरे ढूँड रहे हैं खोए हुए पल की कंकरियाँ