मुकम्मल थी ज़िंदगी थे रास्ते ख़ुशनुमा न थी मंज़िल की परवाह चुन ली अपनी मर्ज़ी की डगर और मैं ही मेरा हम-सफ़र ख़ुद की सोहबत से बेहतर भला और कौन न कोई इख़्तिलाफ़ हर हाल में रज़ा जहाँ मैं ले चलूँ ख़ुद को बस मज़ा ही मज़ा न समय की कमी न किसी का इंतिज़ार जहाँ जी चाहा डाल दिया पड़ाव मंज़िल वहीं जहाँ रुक गए मेरे पाँव अगली सुब्ह मैं और मेरी नई-नवेली डगर तय्यार पुर-सुकून थी ज़िंदगी चलते चलते एक मोड़ पे आ मिली एक और राह बढ़ने लगे साथ मेरे और एक जोड़ी पाँव आज पहली बार मेरे अधूरे-पन का एहसास करा गया कोई क्या ख़ाक मुकम्मल थी ज़िंदगी आईना गया कोई