मिसरे दम पे रख देती हूँ चावल क़ाब में भीग चुके हैं रोटी बेलन के नीचे है प्याज़ का तड़का दाल पे डाल के चावल पकने रखे हैं कैटल में है चाय चढ़ाई जब तक चाय में भाँप बने मैं मिसरे दम पे रख देती हूँ और इसी अस्ना में बर्तन दस्तर-ख़्वान पे चुन देती हूँ दस्तर-ख़्वान पे कप पलेटों और चमचों के शोर में मिसरे कच्चे-पक्के रहते हैं एक सुकूँ का पल मिलते ही सोच की हंडिया खोलूँगी और इक इक कर के धीमी आँच पे सारे मिसरे सेंकुंगी तो सब नज़्में बन जाएँगी