चक्कर खाती चर्ख़ी पर घूम कर तेरे हाथों में पानी के चंद ही क़तरों से मैं अपने आप सिमट जाती कभी गोल रकाबी के जैसी कभी चिपटी कासों की प्याली कभी गर्म अलाव और ठंडे जज़्बे मैं अपने अंदर समो जाती मेरी क़ीमत तू ने क्या जानी जब आ'ला काँच के बर्तन आए तू ने झट से मुझ को तोड़ दिया मेरे भोले प्यारे साथी रे तू फ़र्क़ न इतना जान सका काग़ज़ के नक़ली फूलों में और नर्म गुलाब की पत्ती में