उन की कनपटियों के नीचे काली लम्बी क़लमें उन के रुख़्सारों के भरे भरे भरपूर ग़ुदूदों तक थीं, थोड़े थोड़े वक़्फ़ों से वो ज़र्द गिलासों को होंटों से अलग करते..... और फिर धीमी धीमी बातें करते अपनी नई नई उन दाश्ताओं की जिन के नाम और जिन के निर्ख़ उस दिन ही अख़बारों में छपे थे