मुझे तो इंतिज़ार-ए-इश्क़ में ही लुत्फ़ आता है किसी की चाहतों का रंग हर धड़कन पे तारी हो अजब सा कर्ब बेचैनी मुसलसल बे-क़रारी हो निगाहें मुंतज़िर फ़ुर्क़त कसक और आह-ओ-ज़ारी हो मुझे तो इंतिज़ार-ए-इश्क़ में ही लुत्फ़ आता है कभी पहलू में मिलता है कभी वो दूर जाता है किसी के जिस्म ओ जाँ को इश्क़ हर लम्हा जलाता है तसव्वुर कैसे कैसे दिल-नशीं मंज़र दिखाता है मुझे तो इंतिज़ार-ए-इश्क़ में ही लुत्फ़ आता है अभी तो फ़ुर्क़त-ए-जानाँ के क़िस्से ख़ूब लिखने हैं दबी चाहत के नग़्मे और तराने ख़ूब लिखने हैं रिफ़ाक़त में जुदाई के फ़साने ख़ूब लिखने हैं मुझे तो इंतिज़ार-ए-इश्क़ में ही लुत्फ़ आता है 'अलीना' इंतिज़ार-ए-इश्क़ ग़ज़लों को सजा देगा विसाल-ए-यार तो बस चंद लम्हों का मज़ा देगा मिलन हो फिर जुदाई ऐसा पल हर पल सज़ा देगा मुझे तो इंतिज़ार-ए-इश्क़ में ही लुत्फ़ आता है