आओ कि मय-कदों में गुज़ारें तमाम रात तन्हाइयों में सोहबत-ए-जाम-ओ-सुबू रहे ख़ामोशियों में कैफ़ियत-ए-गुफ़्तुगू रहे यादों के पेच-ओ-ख़म को सँवारें तमाम रात ज़हर-ए-हयात दिल में उतारें तमाम रात ये दर जो बंद हो तो कहीं और उठ चलें ज़ुल्मत बढ़े तो आतिश-ए-ग़म तेज़-तर करें परवाना-वार जल के बनें ख़ाक-ए-रह-नशीं अम्बोह-ए-गर्द-बाद में रक़्स शरर करें उफ़्तादगी में आरज़ू-ए-बाल-ओ-पर करें ले जाएँ किस के पास ये दाग़-ए-ख़ुद-आगही ऐ सोज़-ए-हिज्र कोई तिरा राज़-दाँ नहीं ये शहर-ए-ना-शनास ये वीरानी-ए-हुजूम इस क़ाफ़िले में अहल-ए-नज़र का निशाँ नहीं सब अजनबी हैं कोई यहाँ हम-ज़बाँ नहीं बैठें शफ़क़ के साए में ख़ून-ए-जिगर पिएँ आओ कि रस्म-ए-अहल-ए-ख़राबात है यही हर इश्क़-ए-सख़्त-जाँ की मुकाफ़ात है यही