ब-मुश्किल मिलने वाले क़ुर्ब के लम्हों को यकजा जोड़ कर जो थी सजाई उस पिघलती शाम मद्धम रौशनी में रेस्तराँ की मेज़ पर जब चाँद मेरे साथ बैठा था मसाला चाय की चुस्की पे उस के जुड़वाँ लब इक दूसरे से मिल रहे थे तब हमारे हिज्र की मजबूरियाँ मिसरों में लिपटा कर उसे इक शेर मैं ने यूँ सुनाया था तुम्हारे नाम से वाबस्ता है दूरी कुछ इस हद तक तुम्हारा नाम लूँ तो लब भी आपस में नहीं मिलते मेरा ये शे'र सुन कर उस ने थोड़ी देर सोचा और फिर धीरे से अपना नाम होंटों पर सजा कर उस ने मेरे शे'र की तस्दीक़ कर दी और मिरा लिखना मुकम्मल हो गया था