इक मुद्दत के बाद मैं अपने घर आया हूँ मेरे सहन के पौदे मुझ को देख रहे हैं सर को उठाए कानों के मानिंद उठाए पत्तों को क़दमों की आहट सुनते हैं ख़ुश हो कर शायद हँसते हैं लोग तो हैं अंजान उन्हें मालूम ही क्या है पौदे सब कुछ जानते हैं अपनों को पहचानते हैं इतने दिन परदेस में मुझ को अपनों ने कुछ ख़बर न भेजी और ये पौदे हर शब को मेरे ख़्वाब के हर कोने को अपनी ख़ुशबू से महकाते रहते थे मुझ को देख बुलाते थे एक मुद्दत के बाद मैं अपने घर आया हूँ मेरे सहन के पौदे मुझ को देख रहे हैं