1 सारी दीवार सियह हो गई ता-हलक़ा-ए-दाम रास्ते बुझ गए रुख़्सत हुए रहगीर तमाम अपनी तंहाई से गोया हुई फिर रात मिरी हो न हो आज फिर आई है मुलाक़ात मिरी इक हथेली पे हिना एक हथेली पे लहू इक नज़र ज़हर लिए एक नज़र में दारू देर से मंज़िल-ए-दिल में कोई आया न गया फुर्क़त-ए-दर्द में बे-आब हुआ तख़्ता-ए-दाग़ किस से कहिए कि भरे रंग से ज़ख़्मों के अयाग़ और फिर ख़ुद ही चली आई मुलाक़ात मिरी आश्ना मौत जो दुश्मन भी है ग़म-ख़्वार भी है वो जो हम लोगों की क़ातिल भी है दिलदार भी है