मैं मुनाफ़िक़ हूँ हर इक का दोस्त बन जाता हूँ मैं दोस्त बन कर दोस्तों में फूट डलवाता हूँ मैं इंतिहा की चिड़ है मुझ को दो दिलों के क़ुर्ब से देखता हूँ जब ये फ़ौरन जाल फैलाता हूँ मैं मैं बुराई राम की करता हूँ जा कर शाम से शाम ने जो कुछ कहा वो राम तक लाता हूँ मैं पीठ पीछे सब को देता हूँ मुग़ल्लज़ गालियाँ सामने लेकिन अदब से सर के बल जाता हूँ मैं हल्क़ा-ए-अहल-ए-सुख़न में जो मिरी तौक़ीर है छिन न जाए हर नए शाइ'र से घबराता हूँ मैं मुझ को अपनी शायरी पर किस तरह हो ए'तिमाद ख़ुद तो कम कहता हूँ औरों से कहलवाता हूँ मैं दाद देने के लिए रखता हूँ कुछ अहबाब साथ शे'र उन के वास्ते भी माँग कर लाता हूँ मैं बज़्म में पढ़ता हूँ मैं नथुने फुला कर चीख़ कर और इस से पेशतर तक़रीर फ़रमाता हूँ मैं ये समझता हूँ कि कोई शे'र ख़ुद कहता नहीं ये ख़बर हर एक के बारे में फैलाता हूँ मैं और कोई शे'र कह लेता है अच्छा भी अगर कल का लौंडा कह के ख़ातिर में नहीं लाता हूँ मैं ख़ुद तो ना-मौज़ूँ भी कह लेता हूँ मौज़ूँ भी मगर दूसरे के शे'र पर तन्क़ीद फ़रमाता हूँ मैं शायरी से वास्ता मुझ को न उर्दू से ग़रज़ सिर्फ़ शोहरत के लिए उन से उलझ जाता हूँ मैं कुछ बुज़ुर्गों से मुझे भी क़ुर्ब हासिल था कभी नाम हो उन से मिरा यूँ उन के गुन गाता हूँ मैं ज़िक्र करता हूँ पुरानी सोहबतों का बार बार और दौर-ए-हाल को माज़ी से ठुकराता हूँ मैं बावजूद इस के अगर होती नहीं शोहरत नसीब गालियाँ देता हूँ सब को बौखला जाता हूँ मैं जिस से मैं वाक़िफ़ हूँ वो शोहरत में आगे बढ़ गया देख कर उस को बहुत कुढ़ता हूँ बल खाता हूँ मैं जानता ही कौन था मशहूर मैं ने कर दिया बस यही कह कह के अपने दिल को समझता हूँ मैं इल्म-ओ-फ़न की चंद बातें जो मुझे मालूम हैं दाद पाने के लिए हर बार दोहराता हूँ मैं दाद देनी हो तो यूँ देता हूँ इक इक लफ़्ज़ पर लफ़्ज़ पूरा भी नहीं होता फड़क जाता हूँ मैं कुछ न थे अशआ'र मुँह देखे की दी थी मैं ने दाद वक़्त-ए-ग़ीबत दाद की तरदीद फ़रमाता हूँ मैं जब किसी बज़्म-ए-सुख़न में शे'र पढ़ता है कोई इक तरफ़ बैठा हुआ तसहीह फ़रमाता हूँ मैं साथ वालों पर यूँ करता हूँ फ़ज़ीलत आश्कार हो न हो हर शे'र में कुछ ऐब गिनवाता हूँ मैं या कभी फिर दाद देता हूँ ब-आवाज़-ए-दुहल साथ वालों की तरफ़ फिर आँख मिचकाता हूँ मैं सामने जब तक रहूँ मैं हूँ ग़ुलामों का ग़ुलाम आसमाँ से वर्ना तारे तोड़ कर लाता हूँ मैं जो नहीं लाते हैं ख़ातिर में ख़ुशामद को मिरी वो झिड़क देते हैं मुझ को उन से घबराता हूँ मैं या समझ जाते हैं जो इन मेरे हथकंडों का राज़ सामने आते हुए उन के भी कतराता हूँ मैं कमतरी का है 'शिफ़ा' एहसास इन सब का सबब दुश्मनी औरों के दिल में तो नहीं पाता हूँ मैं