वो परस्तारान-ए-आज़ादी शहीदान-ए-वतन ज़ीनत-ए-हिन्दोस्ताँ होना था जिन का बाँकपन इस वतन के वास्ते क्या क्या सहे रंज-ओ-मेहन नाज़ के क़ाबिल है उन की जाँ-निसारी का चलन ख़ून से सींचा वतन की सर-ज़मीन-ए-पाक को मर्तबा इक्सीर का बख़्शा यहाँ की ख़ाक को ज़ीस्त की हर एक ने'मत मुल्क पर क़ुर्बान थी रहनुमा के इक इशारे पर तसद्दुक़ जान थी ख़ून दामन पर न था उन की यही पहचान थी ग़ाज़ियान-ए-हिन्द की सब से निराली शान थी ये सितम-गारों को उल्फ़त का सबक़ दे कर गए जिन को मरना चाहिए था उन के बदले मर गए जब हुई महसूस आज़ादी की उन को एहतियाज और उन फ़र्मां-रवाओं से किया जब एहतिजाज तैश से थर्रा गया बर्तानिया का सामराज ज़ुल्म से उस के हुआ बेदार फिर सारा समाज मुल्क में खोला उन्हों ने जंग-ए-आज़ादी का बाब सामराजी ज़ुल्म जिस से हो गया फिर बे-नक़ाब गोलियाँ कितनी चलाईं जलियाँ वाले बाग़ पर ज़ुल्म फिर ढाए अवध की बेगमों को मार कर तीन दिन किस तरह फ़ाक़े से रहे शाह-ए-ज़फ़र तीसरे दिन तश्त पर लाए गए बेटों के सर ज़ुल्म की तारीख़-ए-ख़ूनीं से हैं गो नाशाद हम आज के दिन फ़ख़्र से करते हैं उन को याद हम और इस के बा'द भी क़ुर्बानियाँ देते रहे फिर भगत सिंह और साथी उस के सूली पर चढ़े सर पे लाला-लाजपत राय के भी डंडे पड़े बोस बाबू मुल्क से बाहर ही जा कर मर गए और लाखों मर गए जिन के नहीं मालूम नाम आज हम करते हैं उन सारे शहीदों को सलाम रंग लाया है बिल-आख़िर उन शहीदों का लहू हो गई आज़ाद हो जाने की पूरी आरज़ू और हैं तकमील-ए-आज़ादी के चर्चे चार-सू एक दिन बन जाएगा ये मुल्क जन्नत हू-बहू ख़्वाब देखा था उन्हों ने उस की ये ता'बीर है मुल्क में जारी हर इक उन्वान से ता'मीर है उन की अज़्मत से सबक़ लें आज अहल-ए-इक़्तिदार कुर्सियों पर बैठ जाने से नहीं मिलता वक़ार हुक्मरानी छोड़ कर बन जाएँ वो ख़िदमत-गुज़ार नाम उन का जाँ-निसारान-ए-वतन में हो शुमार जिस में हो मतलब-परस्ती ज़ीस्त वो नाकाम है ज़िंदगी आख़िर 'शिफ़ा' क़ुर्बानियों का नाम है