इक आवाज़ उभरती आ रही है दूधिया सी रौशनी इक पर्दा-ए-बीनाई से हो कर गुज़रती गुज़रती जा रही है सल्ब होती जा रही है क़ुव्वत-ए-इंकार भी इक़रार भी कुछ हो रहा है या कहूँ कुछ है नहीं मालूम क्या है और क्यूँ कुछ है इक अम्बोह-ए-फ़रावाँ जौक़-अंदर-जौक़ सब अफ़राद इक़रा की तरफ़ जाते हुए और मैं उधर ग़ार-ए-हिरा की चुहल-साला ख़ामुशी में महव होता जा रहा हूँ एक 'है' और इस क़दर मौजूद ला-मौजूद भी 'है' और मैं अब उस को ख़ुदा में क़ैद कर के मुनकिर-ए-हक़ हो रहा हूँ इन्दर अंदर रो रहा हूँ