कुक्ड़ूँ-कूँ जी कुक्ड़ूँ-कूँ देखो मैं इक मुर्ग़ा हूँ तुम हो इंसाँ सोए हुए और मैं देखो जागा हूँ रात को जाते देख चुका सुब्ह की आहट सुनता हूँ मंज़र सुब्ह का है ऐसा तुम को क्यूँ आवाज़ न दूँ सूरज का रथ निकला है बिस्तर में तुम छुपे हो क्यूँ सुन ली मेरी बाँग मगर फिर भी न रेंगी कान पे जूँ