बंजर चेहरे जिन पर न बारिश की पहली बूँद का इज़हार उगता है न आते जाते लम्हों का कोई इक़रार इंकार न इत्मीनान न डर आँखें जिन में कोई निगाह पलकों से नहीं उलझती बाक़ी हवास भी ख़ुशबू और ख़ुशबू की शोहरत से आवाज़ और आवाज़ की क़ुव्वत से यकसर आरी हैं कौन हैं ये लोग किस मौज-ए-फ़ुज़ूलियत की ज़द में आ गए हैं चुप खड़े हैं और हम दिन भर में शहर के सारे फ़रिश्तों और शैतानों से मिल कर लौट आते हैं मगर ये चुप खड़े हैं न क़ाएल होते हैं न ज़ाइल! इन से हमारा तअल्लुक़ अभी तक वाज़ेह नहीं हुआ तअल्लुक़ इस लिए कि हम मज़दूर हैं और ये जानने का इश्तियाक़ रखते हैं हमें क्या काम मिलेगा इन के लिए टावर बनाने का कि इन के लिए क़ब्रें खोदने का!