बे-दाग़ वुसअ'तों की आहू-ए-बेबाक तेरे एक ही मुश्क-बेज़ झोंके ने यादों के दरीचे खोल दिए हैं झुलसती दोपहरों में घने पीपल की छाँव में झूला झूलती हम-जोलियाँ ख़ुश-गुलू चाढ़े की आवाज़ में रेग-ज़ारों के गीत कुन रस हुए जाते हैं बरसात की आबनूसी रात का मंज़र खुले आसमान तले बान की ठंडी चारपाई पर चादर तान कर धुले तारों की झिलमिलाहट दीद-रस हुई जाती है सावन रुत में गीली सोंधी मटकी महकार चढ़ी नहरों की सलोनी सावनी थी मुश्क-बार सुबहान तेरी क़ुदरत की सदाएँ भी अजब थीं डाल डाल को कई कोयल की अदाएँ भी ग़ज़ब थीं मैं चश्म-ए-तसव्वुर से उन चुँधिया देने वाले रौशनियों से नज़रें बचा कर इस बज़्म-ए-नशात में झाँक लेती हूँ कि हर शय अपने असल को ढूँढती है