मैं हूँ सर-चश्मा-ए-अव्वल से बहुत दूर पए-नूर भटकने वाला रौशनी अक्स-ब-अक्स आती है इन आँखों तक आइने अपनी ख़यानत से नहीं ख़ुद वाक़िफ़ इन को मालूम नहीं ज़ाविए इन के बदल देते हैं किरनों का मिज़ाज आज इस नूर-ए-मोहर्रफ़ से है आँखों में थकन दिल में ख़न्नास की सरगोशी-ए-पैहम की चुभन काश सर-चश्मा-ए-अव्वल से उतर आए कोई रास्त किरन जो मिरी रूह की ज़ुल्मत में उजाला कर दे मैं कि हूँ कोर मुझे देखने वाला कर दे