मिरा हाल ये था ज़मिस्ताँ में जब बर्फ़-ज़ारों में चलते हुए गुर्सिना भेड़ियों की क़तारें गुज़रतीं तो में कपकपाता ये जी चाहता अर्सा-ए-ज़ीस्त को छोड़ कर कोहसारों के उस पार डेरा लगा लूँ इधर मेरे जाते ही बर्फ़ें पिघल जाएँ गुर्गान-ए-बे-मेहर मेरे नुक़ूश-ए-क़दम सूंघ कर मुझ तक आने न पाएँ मगर अब तो जैसे मिरी रूह में कोई चीता सा अंगड़ाइयाँ ले रहा है ये जी चाहता है कि गर्ग-ए-आश्ती की सभा जब लगे मैं भी तस्वीर जैसी खुली आँख ले कर जो हरगिज़ झपकती न हो ग़ार के वस्त में आन बैठूँ और उन में से जिस जिस की आँखें झपकती चली जाएँ वो लहज़ा लहज़ा मिरा रिज़्क़ हो मैं उसे पारा-पारा करूँ