वो नदी जो कि यहाँ रोज़ खिलखिलाती है अज़्म से जिस के याँ शादाब हैं किनारे भी वो जो सूरज के निकलने पे भी चमकती है गोद में अपनी जो महताब को झुलाती है जिस का मौसम के इशारों पे उतरना चढ़ना ये बताता रहा कब ख़ुश है वो ग़मगीं है कब फिर समुंदर से मिले या वो बड़े दरिया से अपने उद्गम से वो हर हाल जुड़ी रहती है साज़िशें करते रहे मौसम-ए-गर्मा अक्सर उस ने बदली ही नहीं राह कभी भी अपनी पर ये हालात ये तूफ़ान-ए-हवादिस जैसे बन गए हैं सभी इस आब-ए-रवाँ के दुश्मन देख कर अब ये मनाज़िर मैं यही सोचता हूँ कितनी मिलती है नदी तुझ से कहानी मेरी