दिल-ए-मजबूर तू मुझ को किसी ऐसी जगह ले चल जहाँ महबूब महबूबा से आज़ादाना मिलता हो किसी का नर्म-ओ-नाज़ुक हाथ अपने हाथ में ले कर निकल सकता हो बे-खटके कोई सैर-ए-गुलिस्ताँ को निगाहों के जहाँ पहरे न हों दिल के धड़कने पर जहाँ छीनी न जाती हो ख़ुशी अहल-ए-मोहब्बत की जहाँ अरमाँ भरे दिल ख़ून के आँसू न रोते हों जहाँ रौंदी न जाती हो ख़ुशी अहल-ए-मोहब्बत की जहाँ जज़्बात अहल-ए-दिल के ठुकराए न जाते हों जहाँ बाग़ी न कहता हो कोई ख़ुद्दार इंसाँ को जहाँ बरसाए जाते हों न कूड़े ज़ेहन-ए-इंसाँ पर ख़यालों को जहाँ ज़ंजीर पहनाई न जाती हो कहाँ तक ऐ दिल-ए-नादाँ क़याम ऐसे गुलिस्ताँ में जहाँ बहता हो ख़ून-ए-गर्म-ए-इंसाँ शाह-राहों पर दरिंदों की जहाँ चाँदी हो ज़ालिम दनदनाते हों झपट पड़ते हों शाहीं जिस जगह कमज़ोर चिड़ियों पर दिल-ए-मजबूर तू मुझ को किसी ऐसी जगह ले चल जहाँ महबूब महबूबा से आज़ादाना मिलता हो