ये सच है हम जिसे मस्लूब करने जा रहे हैं वो न रहज़न है न ज़ानी है मगर ये जुर्म उस का कम नहीं है वो हमारे बद-दियानत शहर में तल्क़ीन करता है दियानत की तुम्हें मालूम है हम सब शरीक-ए-जुर्म हैं हम सब के चेहरों पर सियाही है गुनाहों की तो क्यूँ न सुर्ख़-रू हो जाएँ धो कर उस के ख़ूँ से अपने चेहरों की सियाही को