ये सेहहत-बख़्श तड़का ये सहर की जल्वा-सामानी उफ़ुक़ सारा बना जाता है दामान-ए-चमन जैसे छलकती रौशनी तारीकियों पे छाई जाती है उड़ाए नाज़ियत की लाश पर कोई कफ़न जैसे उबलती सुर्ख़ियों की ज़द पे हैं हल्क़े सियाही के पड़ी हो आग में बिखरी ग़ुलामी की रसन जैसे शफ़क़ की चादरें रंगीं फ़ज़ा में थरथराती हैं उड़ाए लाल झंडा इश्तिराकी अंजुमन जैसे चली आती है शर्माई लजाई हूर-ए-बेदारी भरे घर में क़दम थम थम के रखती है दुल्हन जैसे फ़ज़ा गूँजी हुई है सुब्ह के ताज़ा तरानों से सुरूद-ए-फ़त्ह पर हैं सुर्ख़ फ़ौजें नग़्मा-ज़न जैसे हवा की नर्म लहरें गुदगुदाती हैं उमंगों को जवाँ जज़्बात से करता हो चुहलें बाँकपन जैसे ये सादा सादा गर्दूं पे तबस्सुम-आफ़रीं सूरज पै-दर-पै कामयाबी से हो स्तालिन मगन जैसे सहर के आइने में देखता हूँ हुस्न-ए-मुस्तक़बिल उतर आई है चश्म-ए-शौक़ में 'कैफ़ी' किरन जैसे