अगर क़ौम की है तरक़्क़ी की ख़्वाहिश सुनो कान धर के हमारी गुज़ारिश ग़ुरूर-ओ-हवस का नमूना अमीरी बड़ी इस से हिन्दोस्ताँ में फ़क़ीरी तवंगर वही है जो रहता है क़ाने ग़रीबों की ख़िदमत न हो जिस को माने ग़रीबों से हँस हँस के करते हैं नफ़रत समझते हैं अपने को हक़दार दौलत सज़ा-वार उन को अमीरी नहीं है जिन्हें आदत-ए-दस्त-गीरी नहीं है तवंगर ग़रीबों पे क्यों नुक्ता-चीं हैं ग़रीबी किसी का गुनाह तो नहीं है भरे हैं जो दौलत से तुम ने ख़ज़ाने करो क़ाएम उस से यहाँ कार-ख़ाने घटेगी नहीं इस से दौलत तुम्हारी बढ़ेगी ग़रीबों में इज़्ज़त तुम्हारी ग़रीबों को मेहनत का पेशा मिलेगा दूकानों पे स्वदेशी सौदा मिलेगा तरक़्क़ी है क़ौम-ओ-वतन की इसी से बहारें हैं अपने वतन की इसी से जो गहराइयों में ये पानी रवाँ है करो इस से सैराब सहरा जो याँ है