ख़ामुशी टूट चुकी थी चढ़ती उम्र का नशा अब बोलने लगा था सोया नहीं था अभी कम-सिनी का अल्हड़-पन उस के पैकर के ख़ुतूत नफ़ीस तबीअत नर्म लहजा बोलती आँखें लम्बे घने मुलाएम बाल उस के काँधों पे यूँ बिखरते जैसे बरसती घटाएँ फ़ज़ा में अपना जादू जगाने को बे-क़रार हों मेरे और उस के होंटों का गुलाबी-पन अब निखरने लगा था हमारी आँखों की सरगोशियाँ लोग समझने लगे थे वो रिहाइश-गाह जहाँ हम आख़िरी बार मिले थे वहाँ अज़ीम इमारत खड़ी है मैं अब भी वहाँ से गुज़रता हूँ तो यूँ गुमाँ होता है जैसे शमीम-ए-ज़ुल्फ़ है अब तक बसी फ़ज़ाओं में