शहज़ादे ऐ मुल्क-ए-सुख़न के शहज़ादे देखो मैं ने नज़्म लिखी है नज़्म कि जैसे दिल का शहर शहर कि जिस में तुम रहते हो आधे हँस हँस बातें करते और आधे गुम-सुम रहते हो तुम्हें अधूरी बातें और अधूरी नज़्में अच्छी लगती हैं ना तुम कहते हो बात अधूरी मैं भी इक पूरापन होता है ख़ामोशी के कितने मा'नी होते हैं कुछ बातें अन-कही मुकम्मल शहज़ादे मैं नज़्म अधूरी लिख लाई हूँ तुम इस नज़्म को उनवाँ दे दो तुम ये नज़्म मुकम्मल कर दो लेकिन तुम इस गहरी चुप में क्या इस नज़्म को तुम अंजाम नहीं दोगे इस को नाम नहीं दोगे