और फिर इक दिन मैं और तुम इन ऊँची नीची दीवारों के झुरमुट में उतरे जिन में कभी हमारी रूहों को ज़िंदा चुन दिया गया था इस वक़्त आँगन आँगन में तिरछी किरनों ने धूप के कंगरे सायों की क़ाशों में टाँक दिए थे देखा हुआ सा कोई समाँ पुराना उस दिन हम ने देखा यूँ लगता था जैसे आसमानों की रौशनियाँ झुक झुक कर उस इक क़र्ये को देख रही थीं और हमें तब वो दिन याद आए जब मौत हमारी ज़िंदगियों से गुज़र रही थी ऐसी ही सुब्हों की ओट में हम उन ज़ीना-ब-ज़ीना मुंडेरों के झुरमुट में थे और उस शहर के लोग अब भी गलियों में ख़्वांचे लगाए अपनी ज़िंदगियों को सज रहे थे और फिर हम ने सोचा कौन अच्छा है हम जो मुर्दा चेहरों से जीने की ख़्वाहिश पाते हैं या वो जो हम को ज़िंदा देख के हमारी मौत को मान लेते हैं अभी अभी तो मेरे साथ साथ थे हम उसे गुज़रे हुए ज़मानों के ख़यालो फिर कब लौटोगे इक दिन फिर भी तुम्हारे साथ इस ख़ाक के तख़्ते तक जाऊँगा जिस से ढके हुए बे-नूर गढ़ों में कुछ नादीदा आँखें हम को देख के अब भी हँस हँस उठती नज़र आती हैं