ख़ुदावंदा ये कैसा जब्र है मैं ने तिरी रस्सी को पकड़ा ही नहीं लेकिन मुझे रस्सी ने जकड़ा है मुझे कहते हैं तुम आज़ाद हो, अपने लिए चुन लो मगर बहर-ए-फ़ना को जाने वाले मुझ को रुकने ही नहीं देते मैं रुकना चाहता हूँ उस हसीं के आन मिलने तक कि जो रस्ते में पीछे रह गई थी बयाबान-ए-नुमू की बे-कराँ तारीकियों में अन-गिनत रूहों की धक्कम-पेल थी तब भी वही झूटी कहानी थी कि तुम आज़ाद हो लेकिन अँधेरा भीड़ और वहशत में लम्बी ग़ार के परले सिरे पर टिमटिमाती रौशनी तक सब को आना था वो पीछे रह गई, मैं जब्र की रस्सी में जकड़ा ग़ार से बाहर निकल आया मैं रुकना चाहता हूँ उस हसीं के आन मिलने तक कि जो रस्ते में पीछे है मैं उस का मुंतज़िर हूँ कितने बरसों से ख़ुदावंद-ए-फ़ना! मैं तेरी रस्सी के कई बल खोल कर उम्र-ए-रवाँ के ज़हर से बचता रहा हूँ फिर भी मेरा जिस्म जो हस्ती के जौहर का लिबादा है पुराना हो गया है मैं रुकना चाहता हूँ उस हसीं के आन मिलने तक कि जब उस का लबादा भी पुराना हो तो हम मिल कर तिरे बहर-ए-फ़ना के इस किनारे पर पुराने पैरहन धो लें फिर इस के ब'अद भी तेरी यही ज़िद हो तो ले जाना!!