सच से घर नहीं बनते मेरी लकड़ी सच थी घर नहीं कश्ती बनी सच की कश्ती को खेती हुई मेरी रूह न जाने किन किन पानियों से गुज़र रही है पानी की शक्ल मुक़र्रर नहीं मरने का वक़्त मुक़र्रर होता है कश्ती को मेरी रूह से ज़ियादा पानी मुआफ़िक़ है देव-दार की उम्र पानी में बढ़ जाती है और दुनिया में ढोंग न रचाने वाले की उम्र घट जाती है मौत के साहिल पे उतरने के लिए मैं सच की कश्ती में डोल रही हूँ